सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏
पिछले दिनों अमीश त्रिपाठी लिखित शिवत्रयी (shiva Trilogy) पढ़ रहा था और उसके दूसरे भाग “नागाओं का रहस्य” (the secret of nagas) में कुछ पात्र
“मेंढक और पानी सिध्दांत” पर चर्चा कर रहे होते हैं कि यह सिध्दांत कहता है कि “अगर एक मेंढक को ठंडे पानी के पात्र में डाला जाए तो वह बैठा रहेगा लेकिन अगर उसी मेंढ़क को गर्म पानी के पात्र में डाला जाए तो मेंढक तत्क्षण उछलकर पात्र से बाहर कूद जाएगा।”
“लेकिन अगर उसी मेंढ़क को ठंडे पानी से भरे पात्र में डालकर पात्र को गर्म किया जाए तो पानी धीरे-धीरे गर्म होगा और मेंढक उछलकर पात्र के बाहर नहीं कूदेगा वरन् पानी के बढ़ते तापमान के अनुकूल अपने शरीर का तापमान ढ़ालता जाएगा और अंततः पानी बहुत अधिक गर्म हो जाने पर मेंढक मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।”
भारत की “धर्मनिरपेक्षता” भी कुछ इसी तरह की है।
और ऊपर दिए गए सिध्दांत से जोड़कर अगर भारत में “राजनेताओं द्वारा रचित तथाकथित धर्मनिरपेक्षता” को समझा जाए
तो यह बताना मुश्किल नहीं होगा कि “यहां मेंढक कौन है और पानी कौन है और पानी कौन गर्म कर रहा है??”
आखिर धर्मनिरपेक्षता का अर्थ क्या है??
सिर्फ इतना ही न कि कोई भी व्यक्ति अपने धर्म को माने उसे कोई रोक नहीं सकता और अगर आप किसी भी अन्य धर्म के व्यक्ति को उसके धर्म में विश्वास रखने से नहीं रोकते तो आप धर्मनिरपेक्ष हैं और अगर पूरे राष्ट्र का कानून ही यही कहता है तो वह राष्ट्र एक “धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र” है।
लेकिन यहां कुछ अलग ही परिभाषा गढ़ दी गई कि “फलाने मज़हब” का व्यक्ति अगर कुछ ग़लत भी करता है तो हमें उसका विरोध नहीं करना है क्योंकि वो “अल्पसंख्यक” है और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक का कर्तव्य है कि अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति को दुलार पुचकार कर रखें।
आपको सिखाया गया कि “आतंक का कोई धर्म नहीं होता”
अच्छी बात है, चलिए यह भी मान लेते हैं लेकिन ऐसा मानने के लिए लोगों से आग्रह करने का मात्र यही उद्देश्य होना चाहिए कि किसी “मज़हब विशेष” के निर्दोष लोगों के प्रति (जिनका आतंकी घटनाओं से कोई लेना-देना नहीं है) अन्य धर्मों के लोगों के मन में घृणा या नफरत न घर कर जाए और उन्हें भेदभाव का सामना न करना पड़े और लोग आपके इस विचार को समर्थन भी दे देते हैं कि “आतंक का कोई धर्म नहीं होता” लेकिन क्या इसका अर्थ यह होता है कि कि उन आतंकी घटनाओं के पीछे के कारणों पर चर्चा ही न हो और चूंकि घटना का कारण ही “ग़लत मज़हबी शिक्षा” हो तो क्या उन लोगों की जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिए जो कि समुदाय विशेष के मज़हबी शिक्षा केन्द्रों का नेतृत्व करते हैं??
अगर कोई जिहादी आतंकी भरी भीड़ में “मज़हबी नारे” लगाकर फट जाता है तो क्या इस पहलू पर चर्चा नहीं होनी चाहिए कि हिंसा करते समय और निर्दोष लोगों की हत्या करते समय “जिहादी – आतंकी” मज़हबी किताबों में इस हिंसा के समर्थन में तर्क कैसे ढ़ूंढ लेते हैं???
किसी का गला काटते समय आतंकी ज़ोर से “अरबी ज़ुबान” में कौन से शब्द चीखकर किसी का गला काटने को न्यायसंगत और ईमान वाली बात सिद्ध करने का प्रयास करता है??
अगर इतनी हिंसा करने बाद भी कोई व्यक्ति अपराध बोध से ग्रसित नहीं होता वरन् हिंसा करते समय कुछ “मज़हबी वाक्यों और नारों” को बार बार चीखकर यह दर्शाने का प्रयास करता हो कि यह तो न्यायसंगत है तो क्या यह प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए कि इतनी हिंसा को भी उनकी ही दृष्टि में न्यायसंगत सिध्द कर देने की प्रेरणा और शब्द उनके पास कहां से आ रहे हैं???
जब किसी व्यक्ति द्वारा अन्य किसी व्यक्ति को जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाता है या उस व्यक्ति को जातिगत आधार पर हिंसा का सामना करना पड़ता है तो बिना लाग-लपेट के उस घटना के कारण यानि कि “जातिगत असमानता” पर बात होती है क्योंकि यह हमारे समाज की एक कुरीति है और इसे दूर होना चाहिए तो फिर “बम विस्फोट” जैसी इतनी बड़ी हिंसात्मक घटनाओं के कारण पर क्यों चर्चा नहीं होनी चाहिए??
हमें तो “धर्मनिरपेक्षता की गढ़ी हुई परिभाषा” पकड़ा दी गई जो कि इनके एजेंडे को पूरे समाज में चलाती और पूरे उसी “तथाकथित धर्मनिरपेक्षता” का चोला ओढ़ाकर प्रश्न उठाने से रोकती।
और हुआ भी यही, सारे लोग “धर्मनिरपेक्ष” हो गये और प्रश्न उठाना बंद कर दिया लेकिन अब कुछ समय से ” तथाकथित धर्मनिरपेक्षता” की धूल धुलती जा रही है और लोग धर्म निरपेक्ष से हिंदू होते जा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि भाई हमने ऐसा किया क्या है कि हम पर इतने बम फट रहे हैं???
इसीलिए अब तकलीफ़ शुरू हो चुकी है और होगी ही।
हमने एक फिल्म नायक को शंकरजी की प्रतिमा के पीछे से शंकर जी की आवाज़ बनकर नायिका को लुभाते देखकर सिनेमाघरों में तालियां पीटीं और कहा यह सब तो चलता है।
और अब हमें उन्हीं सिनेमाघरों में बैठकर शंकरजी को बाथरूम में भीगते देखना पड़ रहा है लेकिन आश्चर्य!!!!!
हम तब भी तालियां पीट रहे थे और कह रहे थे कि यह सब तो चलता है।
आंच पर चढ़े पानी के पात्र में मेंढक हैं न भाई…..
“धर्मनिरपेक्षता के पानी” के तापमान के अनुसार अपने को धीरे-धीरे ढ़ाल ही चुके हैं तो दिक्कत क्या है तालियां ही पीटेंगे।
अब मेंढक तापमान झेलने के आदी हो गये हैं तो उनको सोना बेचने वाले और डिटर्जेंट पाउडर वाले भी ज्ञान देने लगे हैं क्योंकि मेंढ़क अब सब झेल लेंगे।
लेकिन अब बहुत लोग मेंढकों को जगाने आ गये हैं अब ये मेंढक उछलकर पात्र से बाहर कूदेंगे और मानव रूप धारण कर कुछ प्रश्न खड़े करेंगे या वहीं उबल जाएंगे ये वो मेंढ़क ही जाने।
हम तो पात्र से बाहर उछल आए अब अपनी बारी है कि दूसरों को बाहर निकालने की।
और यहीं नहीं रुकना है….
हिम्मत तो अपने अंदर इतनी लाना कि जैसे वो दूसरे धर्मों के लोगों से बेझिझक “आदाब अर्ज़” करते फिरते हैं और अब तक हम भी उन्हें देखकर आदाब अर्ज करते फिरते थे, उसी तरह हम भी अब किसी को भी देखकर “जयरामजीकी” बोलने से पहले एक क्षण को भी झिझकें न….
आगे मिलूंगा किसी और मुद्दे के साथ तब के लिए
हर हर महादेव 🙏🙏🙏