सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏
पिछले लेखों में मैंने आपको काफी सारी जानकारी दी कि किस तरह ये “अर्बन नक्सली” काम करते हैं।
आज बताता हूं आपको इनके बहरूपिया होने के बारे में।
इन्हें अर्बन नक्सली या शहरी नक्सली, वामपंथी, कम्युनिस्ट और लिबरल (liberal) भी कहते हैं लिबरल इसीलिए क्योंकि यह स्वयं को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि ये अन्य विचारों के लिए हमेशा खुले हुए हैं और बड़े उदारवादी हैं लेकिन ढ़ोल अपनी पोल स्वयं खोल ही देता है।
यह भी इनकी एक रणनीति का ही हिस्सा होता है कि सबके सामने अलग-अलग रूपों में आते हैं।
इनसे बड़ा बहरूपिया कोई हो नहीं सकता।
कभी ये उदारवादियों या लिबरल (liberals) के रूप में आपके सामने आते हैं, तो कभी नारीवादियों या फेमिनिस्ट (feminists) के रूप में, कभी नास्तिक (athiest), तो कभी बुध्दिजीवीयों (intellectuals) और पत्रकार के रूप में, कभी बुकर पुरस्कार विजेता लेखक के रूप में, तो कभी किसी फिल्म निर्देशक (director), अभिनेताओं – अभिनेत्रीयों (actors – actresses), स्टैंड अप कॉमेडियन्स (stand up comedians) के रूप में, कभी सामाजिक कार्यकर्ताओं (social activists), मानवाधिकार संगठनों, छात्रों (students) और किसी बड़े विश्वविद्यालय (University) के प्रोफेसर के रूप में।
ये सब लोग आपको अलग-अलग जगहों और क्षेत्रों में दिखाई देंगे पर इन सबकी भाषा एक जैसी ही होती है – अनावश्यक आलोचना की, देशद्रोह की, हिंसा के समर्थन की, धर्म – संस्कृति, देवी-देवताओं और महापुरुषों के अपमान की, और चूंकि यह अलग-अलग कार्यक्षेत्रों (work fields) से होते हैं अलग-अलग मंचों से बोलते हैं तो हम समझ नहीं पाते कि ये सब एक ही हैं लेकिन इनकी भाषा पर अगर आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि हैं ये सब अर्बन नक्सली ही।
असल में यही इनकी चाल होती है कि ये गैर राजनीतिक क्षेत्रों में व्याप्त रहते हैं और बिल्कुल गैर राजनीतिक मंचों (non political platforms) से अपनी “अर्बन नक्सलियों” वाली भाषा बोलते हैं ताकि आपको लगे कि ये व्यक्ति तो राजनीति में नहीं है और न ही किसी राजनीतिक मंच से ऐसी बात कर रहा है तो कुछ तो सच्चाई इस व्यक्ति की बात में होगी ही और कई लोग इसी कारण इनके विचारों से प्रभावित हो जाते हैं क्योंकि ये बहरूपिए होते हैं, जो दिखेंगे तो आपको किसी नास्तिक बॉलीवुड गानों के लेखक (bollywood song writer) या निष्पक्ष पत्रकार या किसी स्टैंड अप कॉमेडियन्स (stand up comedians) के रूप में लेकिन होते हैं सब के सब “अर्बन नक्सली”।
आपको लगता है कि ये तो फलां-फलां “निष्पक्ष पत्रकार” या “बॉलीवुड के किसी नास्तिक शायर” ने बोला है तो सही ही बोला होगा क्योंकि ये नेता थोड़े ही हैं और अगर नेता नहीं हैं तो इनके कोई राजनीतिक लक्ष्य (political objectives) भी नहीं होंगे तो फिर कुछ तो सच्चाई होगी ही इनकी बात में और आप प्रभावित हो जाते हैं और यहीं इनकी रणनीति सफल हो जाती है।
चूंकि ये अपने आपको “राजनीति से बिल्कुल ही अछूता या अलिप्त” बताते हैं ताकि अधिक से अधिक संख्या में लोगों का समर्थन ये प्राप्त कर सकें और इनकी कही गई बातें अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक लगें।
इनका स्वयं को राजनीति से अलग रखने का यही कारण है कि राजनीति से जुड़े व्यक्तियों का जनता कम भरोसा करती है क्योंकि उनके राजनीतिक लक्ष्य (political objectives) स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, नेता कुछ भी कहें, कुछ भी करें, तो उनकी बात को जनता यह कहकर नकार देती है कि कोई मतलब तो अवश्य होगा, कोई राजनीतिक स्वार्थ तो अवश्य होगा और अर्बन नक्सली बहरूपिए के रूप में रहते हैं इसलिए इनके राजनीतिक लक्ष्य (political objectives) लोगों को प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखते।
इनका “बहरूपिया” होना ही इनकी ताक़त है और बहरूपिए के रूप में बोलना ही इनकी रणनीति है।
हम सत्ताएं बदलने में व्यस्त रहे और इन्होंने पूरी की पूरी व्यवस्था पर ही कब्ज़ा कर लिया क्योंकि ये जानते थे कि “सत्ता” तो मात्र पांच साल ही चलनी है और “व्यवस्था” चलेगी पूरे साठ साल और व्यवस्था में ही बैठकर इन लोगों ने देश को खोखला करने का काम किया है।
पूरे पाठ्यक्रम (syllabus) को इस तरह की रूपरेखा दी गई इस तरह से डिज़ाइन किया गया कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी में अपने भारतीय होने के प्रति हीन भावना भर गई और आक्रमणकारियों के हमसे बेहतर और महान होने की भावना।
असल में स्कूली किताबों के माध्यम से हमें “तथाकथित कम्युनिज्म” की भाषा ही सिखाई जा रही थी, हमें हमारी ही संस्कृति के प्रति विद्रोही बनाया जा रहा था, कालांतर में हमारी संस्कृति में व्याप्त हो चुकी “विषमताओं” (oddities) को ही हमारी संस्कृति के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया गया।
या यूं कहें कि हमारे पाठ्यक्रमों में हमारी समृद्ध संस्कृति की जगह उसकी “विषमताओं” को पढ़ाकर उन्हीं विषमताओं को ही हमारी संस्कृति बता दिया गया जिसने पूरी एक पीढ़ी के मन में यह भर दिया कि हम “अंधविश्वासी” और “अवैज्ञानिक” थे।
वामपंथियों की इस “बहरूपिया रणनीति” के हमें क्या- क्या नुकसान झेलने पड़े हैं वो आपको लेख के अगले भाग में बताऊंगा।
तब तक के लिए हर हर महादेव 🙏🙏🙏