सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

अभी राज्यसभा में फसल के क्रय विक्रय के नियमों से संबंधित बिल प्रस्तुत किए गए और उस पर विपक्ष द्वारा जो हंगामा किया गया और जो “अति आक्रामकता” दिखाई गई, उपसभापति का माइक तोड़ने का प्रयास किया गया, उसे देखकर मुझे “विवेक अग्निहोत्री” द्वारा निर्देशित, “अर्बन नक्सलियों” पर आधारित एक फिल्म “बुध्दा इन ए ट्रॉफिक जाम” के दृश्य का स्मरण हो आया।

फिल्म की कथा कुछ ऐसी है कि “जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय” अर्थात् “जेएनयू” की तरह एक “आज़ादी – आज़ादी” का जाप करने वाले विद्यार्थियों और उनको इस “आज़ादी – आज़ादी” के जाप का दिशानिर्देश देने वाले विद्वानों (प्रोफेसरों) से परिपूर्ण एक विश्वविद्यालय होता है।

इसमें एक “कॉमरेड प्रोफेसर” जिसका किरदार “अनुपम खेर” ने निभाया है वह एक दृश्य में फिल्म के छोटे शहर से आने वाले एक सीधे साधे “युवा नायक” से कहता है कि प्रोफेसर की पत्नी जो “गैर लाभकारी संस्था” (एनजीओ) आदिवासियों के उत्थान के लिए चलाती है जिसके माध्यम से वो आदिवासियों के द्वारा बनाए गए मिट्टी के बर्तनों की और उनकी बनाई कलाकृतियों की नीलामी और विक्रय करती है वह संस्था “धन के अभाव” में बंद करनी पड़ सकती है इसीलिए आदिवासियों को उनके श्रम का उचित मूल्य सके ऐसी योजना “युवा नायक” द्वारा बनाई जाए क्योंकि नायक “मैनेजमेंट” में ही स्नातक (degree) कर रहा है।

इस तरह की योजना पर काम करने के लिए नायक को कुछ दिन का समय दिया जाता है।

कुछ समय योजना पर काम करने के पश्चात युवा नायक, प्रोफेसर और कुछ कंपनियों के प्रतिनिधियों (representatives) के बीच एक बैठक होती है।

जिसमें नायक अपनी योजना सबके सामने प्रस्तुत करता है कि अगर एक ई कॉमर्स वेबसाइट बनाई जाए और उस पर आदिवासियों द्वारा निर्मित सामाग्री की तस्वीरें चस्पा (upload) कर उनके मूल्य और अन्य विवरण उस पर लिख दिया जाए और उस चीज़ को क्रय करने (खरीदने) का भी विकल्प हो तो आदिवासियों को उनकी मेहनत का पूरा-पूरा लाभ मिल जायेगा और “बिचौलियों” (middleman) का कोई काम नहीं रह जाएगा जिससे बीच में कोई पैसा नहीं खा पाएगा।

नायक की “बिचौलियाहीन योजना” (no middleman strategy)  सुनकर ही वामपंथी प्रोफ़ेसर उठ खड़ा होता है और कहता है कि

 “मैं तुम्हें यह नहीं करने दूंगा और तुम्हें पूंजीपतियों को लाभ नहीं पहुंचाने दूंगा, तुम पूंजीपतियों के एजेंट की तरह कार्य कर रहे हो”

 और नायक के प्रस्ताव को अस्वीकृत करके मीटिंग छोड़कर चला जाता है।

नायक बहुत हैरान होता है कि वह तो समाधान की बात कर रहा था फिर भी उस पर अजीबोगरीब आरोप क्यों लगाए गए और इस तरह से अति आक्रामकता उसके प्रस्ताव के प्रति क्यों दिखाई गई???

उस वामपंथी कॉमरेड प्रोफेसर के विरोध का कारण साफ था कि अगर किसी वर्ग के अधिकारों की बात करने वाले व्यक्ति की कोई भी योजना (भले ही है योजना समस्या के समाधान का प्रयास ही क्यों न हो) को भी बिल्कुल ही नकार देगा क्योंकि वो योजना उसके वामपंथी एजेंडे के अनुरूप नहीं है, “समाधान भी उसी रास्ते से आना चाहिए जो रास्ता उसे ठीक लगता है”

 वो तो यही चाहता है कि क्रांति हो, आंदोलन हो, हिंसा हो, पूरा तंत्र बदले और साम्यवादी शासन स्थापित हो और फिर जाकर ही कोई समाधान आए।

“साम्यवाद”(communism) के अतिरिक्त अगर कोई दूसरी योजना, कोई दूसरी विचारधारा या कोई दूसरा मार्ग अगर समाधान की तरफ जाता है तो भी उसका उतनी ही आक्रामकता से विरोध किया जाएगा जितना कि “स्वयं से विपरीत विचारधारा” का किया जाता है।

“समाधान भी चाहिए तो हमारे मार्ग से आए और अगर दूसरे मार्ग से समाधान आया तो उस मार्ग को ही समाप्त कर दिया जाएगा”

 “वामपंथियों के लिए समाधान नहीं, उनकी विचारधारा ही हमेशा सर्वोपरि रही है”

इस तरह समाधान ही उनका शत्रु बन गया है अगर वह किसी विपरीत विचारधारा वाले व्यक्ति के द्वारा सुझाया गया हो।

इस फिल्म के उस “प्रोफेसर की मनोदशा” ही “राज्यसभा के उन सांसदों की मनोदशा” है जो कि हिंदी फिल्म के छोटे मोटे गुंडे बदमाशों की तरह तोड़फोड़ करने में लगे हुए थे।

विपक्ष प्रश्न कर सकता है, प्रश्न‌ करना‌ विपक्ष का अधिकार है, पर जो राज्यसभा में हुआ वो चर्चा या विरोध तो बिल्कुल नहीं लगा वरन् गुंडागर्दी ज़्यादा लगी और विरोध में इनकी “अति आक्रामकता” मुझे तो थोड़ी खटक गई और उन सांसदों की मंशा पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करती है।

अगर आप इस विचारधारा के लोगों और उनको मनोभावों को और अच्छे से समझना चाहें तो विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित फिल्म “बुध्दा इन ए ट्रॉफिक जाम” एक बार अवश्य देखें जो कि यूट्यूब पर उपलब्ध है।

आगे मिलेंगे किसी अन्य लेख के साथ तब तक के लिए

हर हर महादेव 🙏🙏🙏

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